मैं समय का परिंदा हूं
मैं समय का परिंदा हूं
मैं समय का परिंदा हूं
आज चला हूं
कल चला हूं
फिर मैं खुद चला गया हूं
सच हिम्मत कर कर लिखना
किसके बस की बात है
कल चला हूं आज चला हूं
फिर खुद चला गया हूं
परिपाटी हमने कैसी बनाई
अब खुद उलझ गए हैं क्यों
सच हमारी आंखों का
कांटा बन गया है
जीवित जो रहा संसार में
सब चले जाएंगे
पर हम अपना वैभव क्यों पसार रहे हैं
सत्यता सट्टा बाजार है
लेकिन रहेगी कब
ये सोचने का विषय है
जिसका विषय जिंदा है
आज चला हूं
कल चला हूं
फिर मैं ही चला गया हूं
मानवता की परिपाटी
मानवता का वैभव
हमने अपने शरीर पर लपेट लिया है
हम चमत्कृत हो गए
इस भौतिकतावाद की खुमारी में
हम भस्मीभूत हो गए
शिव की माधकता की तरह
आज चला हूं
कल चला हूं
फिर मैं ही चला गया हूं
जब विचारों की मंत्रणा
मेरे चहु ओर घूमती है
मैं खुद को नहीं पाता हूं
पता नहीं इस व्यापकता की
व्यापकता मैं कहां खो जाता हूं
आज चला हूं
कल चला हूं
फिर मैं ही चला गया हूं
कभी विश्वास नहीं होता कि हम आए क्यों है
इस धरा पर
आत्मा बनकर
फिर सोचता हूं ,समझता हूं
आगे पीछे देखता हूं ,घूमता हूं ,बदलता हूं
फिर वही आ जाता हूं
क्यों जर्जर हुई वृद्धावस्था में
फिर अपने को ऊंचा पाता हूं
क्यों खो गई दिशाएं
खो गया विश्वास
खो गई वसुत्व
और खो गया सुरेखत्व
प्रकृति और पुरुष का जो शब्द में था
वह खो गया
दिखलाई नहीं दिया
फिर
मैं लौट कर
अपने में आ जाता हूं
आज चला हूं
कल चला हूं
फिर मैं ही चला गया हूं
नि:शब्द क्यों हो गया हूं
अपने आत्मिक ज्ञान ,आध्यात्मिक ज्ञान ,
भौतिक ज्ञान शारीरिक ज्ञान
और लोलुकता ज्ञान से ऊपर
मैं फिर पूर्ण था,
फिर उस ज्ञान में लौट जाता हूं
मुझे किसी ने नहीं कराया
इस धरा पर घूम घूम कर
भ्रमण कर कर अपनी अभिव्यक्ति
दूसरों की अभिव्यक्ति से
मैंने अपने आप ही पाया
फिर सत्य यह था
कि मैं सिर्फ मैं था
आडंबरों के चक्रधरी न कोई रास्ता था
ना कहीं परिधि थी
बस अपना स्वार्थ इसी मे केंद्रित था
लेकिन सच यह था
कि ना कोई परमात्मा था
और ना कोई भगवान था
सब अपने आप में ही विराजमान था
कुव्यवस्था थी और कुछ नहीं था
आडंबरों का वाक्जाल
आज चला हूं
कल चला हूं
फिर मैं ही चला गया हूं।।