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Archana kochar Sugandha

Classics

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Archana kochar Sugandha

Classics

मैं साहित्यकार हूँ

मैं साहित्यकार हूँ

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मैं साहित्यकार हूँ 

हाहाकार-चीत्कार 

संवाद, वाद-विवाद हूँ

मन में उठते विचारों 

के तूफान में 


वेदन-प्रतिवेदन और संवेदन हूँ

मैं ही मनन चिंतन हूँ

मैं लिखता हूँ 

बस लिखता ही जाता हूँ। 


अरे! तुम लिखते हो 

पर तुम्हें पढ़ता ही कौन हैं। 


मैं साहित्यकार हूँ 

समाज की आवाज़ हूँ 

माँ सरस्वती का नाज़ हूँ

साजों की नाद हूँ

स्वरों का सुरताल हूँ


अक्षरों के बिखरे-बिखरे

मोतियों को पिरोता हूँ

सुंदर-सुंदर माला में गूंथता हूँ 

स्वरों की ज्ञान धारा बरसाता हूँ

ऊँचे-ऊँचे स्वरों में 

समाज को सुनाता हूँ।


अरे! साहित्यकार इस बहरे समाज में 

तुझे सुनता ही कौन हैं---? 

जो तेरे इर्द-गिर्द मंडराता हैं 

और जिनके सुनने पर तू इतराता है। 


वह तो तुझे केवल सीढ़ी

की तरह इस्तेमाल 

करता और कराता है

सफलता का मुकाम हासिल करते ही 

वह तुझे पायदान की तरह मसलता है 

मौन और नि:शब्द

तू केवल साहित्यकार का

दंभ भरता है। 


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