मैं नारी हूँ
मैं नारी हूँ


अत्याचारी पुरुषों की दुनिया की मैं दुखियारी हूँ।
खूब मुझे पहचाना साहिब हां मैं तो इक नारी हूँ।।
जकड़ा है जंजीर से ये तन,मन भी मेरा बंधा हुआ।
उड़ने का अरमान भी इन जंजीरों में है बंधा हुआ।।
कहां मुझे इतनी भी छूट है अपने मन की करूँ कभी।
आशाओं के पंख लगाकर अंबर पे पग धरूँ कभी।।
जी चाहा जब बांध दिया इस चौखट कभी उस चौखट।
जब जी चाहा नजर फेर ली बंद कर दिये सारे पट।।
औरों की खुशियों की खातिर मैं मुस्काना भूल गई।
क्या होता है एहसास कोई एहसास जताना भूल गई।।
बीत गए कितने मौसम कितने ही सावन बरस गए।
पर अपनों के स्नेह भाव,सम्मान को ये मन तरस गए।।
जितना कमरे में अंधियारा उतना मन के भीतर है।
दोनों की इस व्यथा वेदना में रत्ती भर न अंतर है।।
एक तेरी दहलीज के भीतर की दुनिया बस मेरी रही।
चौखट के बाहर जाने की हिम्मत भी न मेरी रही।।