मैं कौन हूं।
मैं कौन हूं।
मैं कौन हूं?
मैं क्या हूं?
मैं क्यों हूं?
क्या प्रयोजन है
मेरा इस सृष्टि में,
प्रकृति के इस
सृजन का मुझसे
क्या वास्ता,
क्यूँ अथाह आसमानी
समंदर में मैं एक
क्षणिक मात्र हूं,
क्या वजूद है मेरा,
ये सोच के,
अक्सर कई सतरंगी प्रश्न मेरे
ज़हन में उभरते हैं,
कुरेदते हैं मुझे बार बार
और लगाते है
प्रश्नचिन्ह मुझ पर,
मेरे अस्तित्व पर,
क्या उसके बिना
मेरा खुद का वजूद है?
या मैं बस अंश
मात्र हूं उसका,
और निभा रहा हूं
एक मानव रूपी
कृति बन के उसके
इशारों को,
रंगमंच की
कठपुतलियों के समान,
उसकी दूरगामी
भविष्य की सोच को,
किसी उद्देश्य की
पूर्ति के लिए,
जो रचा है उसने
अपने ही किताब से,
शायद खुद के किसी
प्रयोजन को
पूर्ण करने के लिए।
