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डिंपल कुमारी

Tragedy Children

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डिंपल कुमारी

Tragedy Children

मैं जब आई ।

मैं जब आई ।

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अपशगुन बनकर जब मैं आई ,

बिखर गया हर मंजर,

बन्द दीपक, मैं जलती लौ बुझ गयी।

सब था पर नहीं था।

रोशन नहीं हो पाया वो मंजर ,

किसको कोसूं, किसी को नहीं सिवाय खुद के।

जब आँखें बंद थी तब कुछ नहीं देखा,

जब आँखें खुली सबकी नफरत नजर आई।

मैंने किसी का बुरा नहीं किया,

फिर मिला सन्नाटा मुझे।

फिर भी अपनी परछाई से खेली,

जो मांगा नहीं मिला,

और जो मिला एहसान बनकर

बस एहसान बनकर ,

देखने पर दृश्य सब कुछ है,

पर दर्पण जानता है कोरा कागज है।

डूबती नैया को सहारा किसका ,

समंदर पर किनारा किसका।

बूँद नहीं समुंदर की, लौ नहीं दीपक की,

जन्म नहीं जीवन का, सिर्फ सांस है मौत की।



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