मैं हूँ ख़ास
मैं हूँ ख़ास
औरत हूँ मैं हर दिन हूँ बहुत ख़ास
फ़िर किसी एक दिन क्यूँ लगूँ ख़ास
हर दिन है मनाने का ख़ुश होने का
खुद को सजाने का सवारने का
अपने होने पर फ़ख्र करने का
अपनी गरिमा पर इतराने का
औरत हूँ मेरे लिए हर दिन है ख़ास
माथे पर बिंदी सजे न सजे
आँखों में ढेरों ख़्वाब हैं बसे
गले में हो न हो मोतियों का हार
कण्ठ से निकलती है आवाज़ ज़ोरदार
खूबसूरत काया मन मोहक चितवन
पर में कोई देह नही हूँ इक इंसान
देवी की तरह पूजी जाऊँ नहीं
ऐसी कोई ख़्वाहिश
पर घर की शोभा बनकर रहूँ
मंज़ूर नहीं ऐसी बंदिश
ख्यालों, जज़्बातों के इज़हार की
इजाज़त मांगती हूँ
तुम्हारी तरह इंसा हूँ
तुम्हारे जैसे हक़ूक़ चाहती हूँ
तुम्हारे जैसे हक़ूक़ चाहती हूँ।
