घर
घर
दस मंज़िला बुलंद इमारत में
इक दो कमरों का छोटा सा मकां
सीमेंट, पत्थर, ईंटों से बना
झूमर, ग़लीचे, पर्दों से सजा
न जाने क्यूँ है इतना सूना सूना
न जाने क्यूँ है इतना सूना सूना
बारिश की बूँदें इसकी
छत पर भी बरसती है
सूरज की किरणें इसकी
दीवारों को भी रोशन करती है
फ़िज़ा की खुशबू इसके
दरीचों को भी महकाती हैं
चाँद की चांदनी इसके
आंगन पर भी उतरती है
फिर भी न जाने क्यूँ
छाई थी इक ख़ामोशी
न जाने क्यूँ रहती थी
इक अजीब सी मायूसी
आज तेरे आने से अचानक ही
जी उठा है मेरा ये मकान
तेरी पायल की झंकार से
गूंज उठे है दरों दीवार
तेरे प्यार की खुशबू से
महक रहा है कोना कोना
ख्वाबों को बुनकर तूने
सजाया है हर इक बिछौना
आज ही जाना है मैंने
आज ही मैंने ये जाना
इस मकान को घर करने के लिए
ज़रूरत थी सिर्फ तेरे प्यार की
ज़रूरत है सिर्फ तेरे साथ की।।
