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Noorussaba Shayan

Abstract

4  

Noorussaba Shayan

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रफ्तार

रफ्तार

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273


क्या रफ्तार ज़रूरी थी

ऐसी क्या मजबूरी थी

क्या ख्वाहिशें सच में अधूरी थी

या अराइशें ख़ुद की कमज़ोरी थी


ये चलता फिरता एक शरारा

रगों में दौड़ता ख़ून हमारा

इसी से हमारा वुजूद है

हमारे होने का सुबूत है


रफ्तार ही तो पहचान है

जैसे परिंदों में उड़ान है

जैसे हिरनी भर्ती दौड़ है

जंगल में नाचता मोर है

जैसे दरिया झरने बहते है


बादल गरजते बरसते हैं

ज़मीन घूमे सूरज के इर्द गिर्द

चाँद भी घूमे उसी की मानिंद

हवा भी चलती रहती है


कभी रुकती न ठहरती है

सच है चलना ही ज़िन्दगानी है

ठहरे तो बस ख़त्म ये कहानी है

रफ्तार तो सब की ज़रूर है


पर सब की रफ्तार मुक़र्रर है

ठंडी गर्म सांसें, दिल की धड़कन

सागर की लहरें, बादल की गर्जन

कछुए की चाल, चीते की छलांग


सब की है अपनी अपनी रफ्तार

न कोई किसी से आगे न कोई पीछे

न कोई ऊपर न कोई किसी से नीचे

न जाने क्यूँ इंसान ही है बेचैन परेशान

क्या नहीं समझता क़ुदरत का निज़ाम


क्यूँ हो भला सबसे तेज़ उसकी रफ्तार

इस भागम भाग का देखो ये है अंजाम

न सुकूँ न खुशी बस बेचैनी ही बेचैनी हर तरफ

इक चीज़ मिली नही दूसरे की की अरज़


अव्वल आने की दौड़ है बच्चों में मासूमियत कहाँ

गाड़ी बंगले की हौड़ है लोगों में इंसानियत कहाँ

चाँद, तारे ,बादल,झरने अब वो तसव्वुरात कहाँ

किसी का हाथ थामे साहिल पे टहले ऐसे लम्हात कहाँ


ख़ुद का सुकून औरों की परवाह कर लो इसे ज़िन्दगी में शामिल

मुख्तसर से इस सफर को बना लो हसीन और कामिल।


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