मैं गृहणी हूँ
मैं गृहणी हूँ
मैंने अपने लिए कभी कुछ मांगा नहीं,
इतना मैंने खुद को कभी जाना नहीं,
कब से मैं यूँ ही कर्तव्यों में उलझी रही
आजादी को कभी मैंने समझा ही नहीं,
खुद टूट कर भी घर को संभालती रही,
कितना भी टूटा हौसला पर बिखरी नहीं,
डर से तो जिंदगी भर का नाता जुड़ गया,
दर्द से डरकर मैं कर्तव्यों से घबराती नहीं,
रिश्तों में जंजीरों से जकड़ी हुई हूँ कबसे,
बातें आज़ादी की अब मुझे भाती नहीं,
खुश हूँ अपनों के साथ मैं इस संसार में,
अकेलेपन की जिंदगी मुझे लुभाती नहीं,
अपनों की कड़वी बातों को सुन लेती,
अपनों के लिए कड़वी बात कहने देती नहीं
घर की चारदीवारी में रहना मुझे भा गया,
इसके बाहर घर बनाना मुझे आया नहीं,
अपने विचारों की उथल-पुथल में खो जाती,
दूसरों के विचारों को भी कभी मैंने नकारा नहीं,
ठोकरें खाकर भी संभल गई है जिंदगी अब,
जिंदगी को ठोकर मारना हमें आया ही नहीं,
संस्कारों का गहना पहने ओढ़ ली चुनर,
बेशर्मी का दाग हमने कभी लगाया नहीं,
घर को घर बनाया मुस्कुराहट से मैंने,
मुस्कुराकर रुलाना हमने कभी सीखा ही नहीं,
सबकी खुशी के लिए अपने ख्वाब छोड़ दिए,
दिल में है ख्वाब उन ख्वाबों को हम भूले नहीं,
धूप देखी है हमने कपड़ों को सुखाने के लिए,
शाम की शीतलता में भी ख्वाब भुलाते नहीं।