-मैं बँधन में नहीं लिखता
-मैं बँधन में नहीं लिखता
आदत होती है इंसान की,
रहे दास या फिर आजाद,
दास जीवन नरक समान,
करता रहता वो फरियाद।
बंधन में बंधकर लिखना,
घुट घुटके मरने समान है,
आजादी में जो रहता हो,
वो जन जीवन महान है।
30 वर्ष से लिखता आया,
सीधा सादा इंसान दिखता,
रोब झाड़के कितने गये हैं,
मैं बँधन को नहीं लिखता।
बंधन में जीवन जो जिये,
हो जाये जीना तब हराम,
सारे जीवन ही अच्छे हो,
बुरा होता है बंधन काम।
बंधन में जीता था भारत,
गुलाम कभी देश अपना,
मन की बातें मन में रहे,
आजादी बन गया सपना।
वीर जांबाज लाख आये,
तोड़ डाले गुलामी बंधन,
अंग्रेजों के दांत किये खट्टे,
अंग्रेज घबरा करते क्रंदन।
खाना,पीना, हँसना, रोना,
सबके सब हैं बंधन मुक्त,
बंधन में एक बार बंधा,
मस्तिष्क हो जाता रिक्त।
पैदा होता इंसान आजाद,
बंधन में बंधता दिन रात,
लाखों बंधन बन जाते हैं,
कभी उसको लगती लात।
लिखने की आजादी पाई,
फिर क्यों लिखते बंधन में,
कभी तो खिलखिला हँसो,
क्या रखा जग के क्रंदन में।
बंधन में जो लिखता होता,
सच्चाई से वो मिलता दूर,
बंधन में जो जी रहा होता
घटता जाये तन -मन नूर।
जिसका धर्म ईमान ना हो,
वो जन हर कदम बिकता,
लाख आपदाएं सिर पर हो,
मैं बँधन को नहीं लिखता।