मैं औरत हूँ
मैं औरत हूँ
मैं औरत हूँ जानती हूँ,
फिर भी कोई बताएगा ,
कौन हूँ मैं,
हस्ती क्या है मेरी।
होते मुझ पर अत्याचार,
सदियों से सहती आई,
क्यों, औरत हूँ इसलिए।
आज भी पहले की तरह,
जैसे हर युग में,
करती त्याग हूँ,
हर फ़र्ज़ मेरा निभाने को।
अपनी हर इच्छा को,
मारती रही सदियों से,
तब भी अबला,
अब भी अबला।
आज कहने को स्वतंत्र हूँ,
पर क्या वाकई में हूँ स्वतंत्र,
शायद नहीं,
संस्कारों की आज भी
जिम्मेदारी है मुझ पर।
मुझे गर्व है कि मैं औरत हूँ,
पर मुझे औरत रहने तो दो,
क्यों मुझे अबला,
सबला बनाते हो।
नहीं कहती मेरा करो तुम,
सार्वजनिक रूप से सम्मान,
मेरे अस्तिव को रहने दो बस।
मैं औरत हूँ,
एक संस्कृति हूँ,
मुझे मुझको ही रहने दो।।
