मैं अखबार बन गई
मैं अखबार बन गई
मैं तुम्हारे लिए एक अखबार हो गई हूँ।
जो रोज़ तुम्हारी जरूरत है,
जिसकी तुम्हें एक आदत है
पर अखबार का कलेवर तुम्हें नित नया चाहिए।
अगले दिन तो तुम्हें,बासीपन लगता है मुझ में,
तो मैं थोड़ा सा रोज बदल जाती हूँ।
बाहर से थोड़ी और सज सफर जाती हूँ।
पर ना जाने क्यों, तुम खुश नहीं होते,
अखबार की तरह सरसरी सा पढ़कर,
मुझे कोने में पटक देते हो।
और रंगहीन स्याही जैसे मेरे आँसू
मेरे मन का पन्ना गीला कर देते हैं।
तुम्हारी हिकारत से मुझमें सीलन भर देते हैं।
फिर मैं खुद को सुखाकर,समेटकर
तुम्हारा कुछ नया सा खबर बन जाती हूँ।
पर अब विश्वास सा हो चला है कि
तुम मुझे रद्दी मान चुके हो।
शायद मुझे किसी अमानवीय नियम में लपेटकर,
किसी दिन कूड़ेदान में फेंक दोगे।
हाँ ! तुम पुरुष हो ना, तो सामाजिक स्वीकार्यता के साथ,
फिर एक नया अखबार मुफ़्त या मोल ले लोगे।