STORYMIRROR

Jain Sahab

Abstract

4  

Jain Sahab

Abstract

मायूसी से मौसम तक

मायूसी से मौसम तक

1 min
279

बातें अब शोर लगने लगी है

मेरे हिस्से की चीखें अब खामोशी खोजने लगी है

दर्द की जुबान खामोशी और आंसुओं की जुबां मुस्कान बनने लगी है 

सहारे ढूंढते सर कांधों की मजबूरी समझने लगे हैं 

ख्वाहिशें अब अपना पता बदलने लगी हैं

इम्तिहान इजाजत का इंतजार करने लगे

मायूसी मौसम को मेहमान समझने लगी है

समय समीर बनकर बह चला 

कुछ ठिठका था कहीं जो अब चल निकला

सब्र का बांध बह चला

तोड़ कर हर बंधन अब तुम भी फैला लो पर

भरकर हिम्मत बांध लो कर 

और कर लो तय अपना सफर

खुद को खोजने की ख्वाहिश में अब अपना खोना भी मुमकिन नहीं


तो तय कर लो फासले मायूसी से मौसम तक के 

इम्तिहान को और अब इंतजार न हो 

कि हर गुल्लक अब बांटे खुशी

मायूस सा अब कोहरा न हो।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract