मात्राओं का खेल...
मात्राओं का खेल...
मन करना....
मना करना....
और तुम्हारा यूँ न मानना...
क्या ये सिर्फ़ मात्राओं का खेल नही लगता?
सरसरी निगाहों में यह मात्राओं का ही खेल लगता है....
लेकिन हक़ीक़त में यह मात्राओं के परे का खेल होता है....
यही खेल फिर शब्दों के परे के खेल में बदल जाता है....
और उसके बाद कोल्ड ब्लडेड मर्डर वाले खेल का हिस्सा बन जाता है...
जहाँ आसानी से और बिना किसी शोर से अहसासों को मार दिया जाता है...
'तुम यूँ कहो' से बदलकर 'तुमने यूँ क्यों नही कहा' हो जाता है...
'तुम ने यूँ क्यों लिखा' से बदलकर 'यूँ क्यों नही लिखा' हो जाता है....
यह खेल फिर बदल जाता है...
इसके रूल 'कन्विनियन्स' की हिसाब से बदल दिए जाते है...
यह खेल आगे बढ़ते जाता है...
रियल लाइफ' से 'सोशल लाइफ' में...
और उसके बाद 'सोशल मीडिया प्लेटफार्म में'...
'तुम ये लिखो' से बढ़कर 'ये क्यों लिखा तक....'
और फिर पोज़ किया जाता है कि हम औरतों की आज़ादी के हिमायती है...
ऐसा नही की हम औरतें यह सब समझ नही पाती है.....
सब कुछ समझने के बावजूद हम नासमझी का चोगा ओढ़ लेती है...
और कभी कभी भोलेपन का ढोंग भी रच लेती है.....
क्योंकि हम यह जान चुकी है की तुम्हारा ईगो हमारे ईगो से ज्यादा बड़ा है....
लेकिन हम यह भी जान चुकी है कि इन सब ईगो से परिवार ज्यादा अहम है...
औरतों ने अब मात्राओं के इस खेल को समझ लिया है....
सब कुछ जानकर वे ऑफिस के साथ घर परिवार को भी बैलेंस कर रही है...
