मासिक धर्म की पीड़िता
मासिक धर्म की पीड़िता
मैं लाला रंग से घबराती थी
दूसरों को बताने से हिचकिचाती थी
लाला धब्बे को देखते ही, धोने के लिए भाग जाती थी
पिता को ना कह सकती थी
केवल मां ही मेरा दर्द समझ पाती थी
मैं इस कदर उन 7 दिनों दर्द से कराहती थी।
मंदिर में जाना मत समझी
चूल्हे को मत छुना
अपवित्र हो तुम !
इस कमरे में पड़ी रहना
कहकर मुझे, मेरी दादी का यूँ फटकारना
उन 7 दिनों मानसिक प्रताड़ना ।
खेल कूद से दूरी होती
चलने में होती परेशानी
पेट दर्द का बहाना देकर
छुपाती उन 7 दिनों कि कहानी ।
मेरे शि
क्षक ने मुझे समझाया
जब घरवालों ने उन 7 दिनों का हवाला देकर घर पर रुकवाया
देख मेरी पीड़ा वो बोले
नारी है विश्व की जननी , कर्म , धर्म सब करनी
अपवित्रता का दाग पुरुष पर भी लग जायेगा
क्योंकि पुरुष जन्म स्त्री के कोख से ही तो पाएगा !
होता ना कोई अभिशाप ये
जिसे सुन सब घबरा जाए
स्त्री व्यक्तित्व का गुण है ये
इसके बिना पुरुष पिता का सुख न पाए।
मेरे शिक्षक का मुझे समझना
सारे आम कक्षा में
सबको इससे अवगत कराना
उस अपवित्रता के परदे को हटाना
मुझे याद है, मुझे याद है .....