“जिन्दगी जीना चाहती हूं मैं"
“जिन्दगी जीना चाहती हूं मैं"
जिन्दगी जीना चाहती हूं मैं
अपने समाज से नहीं
अपने मां-बाप से लड़ना चाहती हूं मैं
अपनी अधूरी ख्वाहिशों को
पूरा करना चाहती हूं मैं
जिन्दगी जीना चाहती हूं मैं।
इस पत्थर से समाज में
अपनी ईटो को जोड़ना चाहती हूं मैं
अपनी ख्वाहिशों अपने अरमानों को
सींचना चाहती हूं मैं
अपनी ख्वाहिशों को
अपने तरीके से बुनना चाहती हूं मैं
जिन्दगी जीना चाहती हूं मैं।
छोड़ना चाहती हूं ये बंजर समाज
तोड़ना चाहती हूं उनके खोखले पत्थरों को
उनको मिट्टी बनाना चाहती हूं
अपनी उड़ती ख्वाहिशों से
रस भरना चाहती हूं मैं
जिन्दगी जीना चाहती हूं मैं।
धोखा खुद को नहीं
समाज को देना चाहती हूं मैं
माता-पिता से लड़कर भी क्या कर लूँगी ?
समाज को सीचना चाहती हूं मैं
दिखावी कांटों को
खेतों से खींचना चाहती हूं मैं
उसमें उमंग का बीज भरना चाहती हूं मैं
कण-कण में तंद्रास जगाना चाहती हूं मैं
जिन्दगी जीना चाहती हूं मैं।
खेत की माटी बन
समाज को सीचना चाहती हूं मैं
फूल बन महकाना चाहती हूं मैं
भंवरा बन कुरीतियों को खाना चाहती हूं मैं
मां बाप से लड़
आसमान को तोड़
सारी कुरीतियों को तितर-बितर कर
आखों को खोलना चाहती हूं मैं
जिन्दगी जीना चाहती हूं मैं।
तोड़ दिया मेरा वो सपना
मेरे वो वादे
शक का दीवार खड़ा कर
बिखेर दिए मेरे इरादे
जैसे- एक ईट खुद पर इठलाती है
दीवार खड़ी है मुझपर खड़ी है सोच।
मेरी आंसुओं की गंगा
गंगा-सी पवित्र नहीं
मेरी आंसुओं की धारा
बंगाल की खाड़ी- सी तीव्र नहीं
लेकिन गंगा के पानी में वो नमक नहीं
बंगाल की खाड़ी में वो चमक नहीं
जो मेरी आंसुओं की आखों में दिख जाती है
मेरी जिन्दगी मुझे इठलाकर कह जाती है
तू एक बार फिर जिन्दगी जीना चाहती है।
