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Sonam Gupta

Abstract

4.4  

Sonam Gupta

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जरूरी नहीं

जरूरी नहीं

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जरूरी नहीं होता ज़िन्दगी हर वो मुकम्मल खुशियां दे

जो हर किसी की ज़िन्दगी में आ जाती है

कुछ खुशियां ज़िन्दगी में ऐसे पडाव पे दस्तक देती है

की - क्या तुम मेरे बच्चो को पालोगी ?


शायद ही किसी ने सोचा होता

शायद ही उसके परिवार वालों ने हा कर दी होती

शायद ही उसने अपने परिवार को

नकार के उसे अपनाया होता

उस एक दस्तक का इंतज़ार कर

उसने इतने साल गवा होता।


उन बच्चो को अपना,

वो उसे माफ तो कर पाई नहीं

लेकिन - अभी भी उस दर्द की दीवार को खड़ा कर

उसकी एक गलती को भुला नहीं पाई।

 

अफसोस के आसू एक तरफ

 गम के आसू एक तरफ हजारों सवाल किए जा रही है

एक तरफ मै उससे मिली ही क्यू का दर्द?

दूसरी और मैं उसके लिए लड़ा क्यू नही का दर्द?

दोनों को डुबाए जाएं रहे है।


इन गमों के बावजूद

उन बच्चों को अपनाना

अपने पहले प्यार के पास आना

ज़िन्दगी से मुख मोड़ 

एक दूसरे से नाता तोड़ 

एक दूसरे से दूर कहीं चले जाना।


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