मां
मां
वह भी क्या दौर था।
मेरे आने की खबर मिलते ही मुस्कुराते हुए मां द्वार पर खड़ी रहती थी
भीगी पलकें अधरों पर मुस्कान मेरी मां की यही थी पहचान
भूलू कैसे मां की वह छवि मुस्कुराकर द्वार पर खड़ी रहती थी
बाहों में उसके दो जहां मिल जाता था अनगिनत फूल राहों में खिल जाते थे
बिन कहे न जाने कैसे मन की बात समझ जाती थी
मेरे दिल की गहराई को आंखों से माप लेती थी
घंटों बातों का दौर चल पड़ता था मनपसंद व्यंजनों की कतार लगा देती थी
आगोश में उसके हम बच्चे बन जाते थे जिद पूरी करवाने के लिए मचल मचल जाते थे
सुना अंतिम सफर पर जब निकल पड़ी थी याद कर मुझे बहुत रोई थी
मिलने उससे एक सफर पर मैं भी निकल पड़ी थी
पर उसे तो उस दिन जाने की जल्दी थी
दहलीज पर पहुंच कर देखा आज मुस्कुराते हुए नहीं द्वार पर खामोश सोई थी।