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Archana Tiwary

Abstract

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Archana Tiwary

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माँ

माँ

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क्या मेरा घर अब भी उसी प्यार और सुकून से सजा हुआ है 

सुबह की पहली किरण अब भी तुम्हारे खिड़की पर

दस्तक दे तुम्हें जगाती है 

चांदनी का टुकड़ा क्या रोशनदान से झांक लुका छुपी खेलता है

तेरे साथ क्या अब भी मेरी यूनिफोर्म उसी खूंटी पर टंगी रहती है

उत्तरायण पर लूटी हुई पतंग मैंने तुम से छुपा कर पलंग के नीचे

रख दी थी देखना, क्या अब भी वहीं पड़ी है 

मेरी पुरानी किताबें उसी दराज में रखी है 

साइकिल बरामदे के कोने में वैसी ही खड़ी है पूछने में हंसी आ रही है


पर बताओ न वह दूधवाला, सब्जी वाला और वह काम वाली बाई 

मेरी गैरमौजूदगी में तुम्हें वैसे ही तंग करते हैं

अब तो तुम दोपहर में थक कर अच्छे से सो जाती होगी 

तुम्हें हर बात पर तंग करने वाला तुमसे दूर जो है 

पर मैं जानता हूं तुम्हें दोपहर में सोना नहीं भाता 

मैं खाने की फरमाइश कर वक्त बेवक्त तुम्हें काम में लगा देता 

पसीने से लथपथ तुम गर्मी की दुपहरी में जब खाना बनाती थी 

मैं दो टूक बोल पड़ता मां आज खाना बाहर से मंगवा लेते है 

तुम्हें कितना आहत करता होगा ये बोल


दिन भर सोफे पर पड़ा टीवी देख कर बोल पड़ता था

घर में बोर हो गया माँ वो बोर होना कितना अच्छा था

ये समझने में बड़ी देर कर दी

मैं पूछना तो चाहता हूँ कई सवाल पर आवाज़ सुन फ़ोन पर

कह न पाता कुछ कर सकता हूँ

तुम्हें वीडियो कॉल पर अहसासों को मेरे देख छलक जायेगी तेरी आंखें

दूर हो के तुझसे दिया जो एकाकीपन की सजा उसे

और अब बढ़ा नहीं सकता

तुम क्या हो मेरे लिए शब्दों में बयां कर नहीं सकता


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