माँ
माँ
हर दिन तपती आग में
रोटी के साथ
रोटी नहीं जलती
पर बेशक जल जाते
माँ के हाथ
प्यार की छाँव से, मन
सब पर न्योछावर करती
अपने बच्चों के
वो सारे दुःख हरती
रिश्तों में पड़ी सीलन
को आँगन में धूप दिखाती
सूखते है वो उसमें
झुलस जाती है माँ
घर की खिड़की खोलकर
सबसे पहली किरण
रोशनी की
घर में लाती है
पर मन के अँधेरे कोने
में स्वयं बंद होती है माँ
घर की हर चौखट
पर बिखरी होती है
सभी की इच्छाएँ
रात को अकेले में
अपनी इच्छाओं की
गठरी चुपके से
खोल इठलाती है माँ
दूसरों के ताने
सब सह जाती है
वही अपनी आँसुओं
को चुपचाप पी जाती है माँ
सारा दिन काम करके
थकान की एक शिकन
तक नहीं होती
अपनी बच्चों को देख
थकान भी भूल जाती है माँ
होता है समय सभी के पास
बस उसके लिए नहीं जिससे हम है
अकेले ही में अपनी बच्चों
के बचपन की ठिठोली को
याद कर मुस्कुराती है माँ।
