माँ कहती थी ..
माँ कहती थी ..
ख्यालों में खोये
हाथ की लक़ीरों में
क्यों खोजते नसीब हो…
उठो और
ज़िंदगी में देखो
स्वपन अपने अस्तित्व का
खड़ी हैं मंज़िलें तुम्हारे इंतज़ार में
ढूँढ कर अपनी पहचान की एक मंज़िल
रात में अपने सपनों को सँजोया करो
खुले आँख तभी उसे अपना बनाने को
दिन भर जुनून में श्रम कर जिया करो
ज़िंदगी इसी संघर्ष और
वज़ूद का दूसरा नाम है
अब हाथ की लक़ीरों में
ढूँढ़ते क्यों नसीब हो ।