बचपन और बुढ़ापा
बचपन और बुढ़ापा
हमारे बचपन की किलकारियां
कितनी मोहक और प्यारी
माॅं हुई जाती न्योछावर
बात-बात पर बलिहारी ,
माॅं की गोद में प्यार से
हम धीरे-धीरे बढ़ने लगे
थोड़ा-थोड़ा घुटने चलकर
गिर-गिर कर संभलने लगे ,
हमारी भूख हमसे पहले
माॅं को पता चल जाती थी
सारा काम छोड़कर
खाना वो हमको खिलाती थी ,
समय तेजी से गुजरने लगा
बच्चे से बड़े हो गए
देखते-देखते हम
जवानी की दहलीज़ पर खड़े हो गए ,
ये जवानी कब बीत जाती है
पता ही नही चलता है
चुपके-चुपके बुढ़ापा
सर पर आ धमकता है ,
जीवन का यही अफसाना है
सबका यही फसाना है
बचपन जवानी की तरह हमें
बुढ़ापे को भी स्वीकारना है ।