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Sakhi M

Classics

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Sakhi M

Classics

माँ का घर

माँ का घर

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पलकों के उस पार वो जो एक दुनिया है

नींद खुले मुझे उस पार ख़ुद को पाना है


वो जो मेरे शहर की छोटी छोटी गलियॉं हैं

फिर शामो सहर उन पर पैदल चलना है


शाम ढले नील गगन पंछीओं की क़तारों में

गिन गिन कर उन्हें फिर शर्तों को जीतना हैं


जून के महीने मौसम की पहली बारिश में 

काले घिरे बादलों को नज़रों से चूमना है 


काग़ज़ की बना कर छोटी सी कश्तियाँ 

सहेलियों संग पानी में उन्हें फिर बहाना है 


टूट गया था मॉं छाता तेज़ थी हवा बड़ी

करके जूठे बहाने बरसातों मे फिर नहाना है 


वो मौसम वो दसवीं के इम्तिहान के दिन

खिड़की पर बैठ फिर कवितायें लिखनी हैं


वो फूल ताजे वो महकते मोगरे का गजरा

लंबी चोटी वाले बालों में फिर लगाना है 


सारे साज सिंगार छोड़ कर आज मुझ को 

बचपना पहनना है ख़ूब खिलखिलाना है 


पाँच बजे जब छुट्टी हो भूख बड़ी तेज़ हो 

माँ के हाथ का वो निवाला मुझको खाना है 


बेफ़िकर नादान उड़ते चहकते परिंदे बन

बगिया को चहकाना है, माँ के घर जाना है।


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