लकीरें
लकीरें
चेहरे पर पड़ी झुर्रियाँ
कोई हाथ की लकीरें नहीं हैं,
जो भाग्य-दुर्भाग्य का पता बता देंगी
ये साक्षी हैं उन छुई-अनछुई स्मृतियों की,
जो यौवन में मुस्कुराईं थी कभी
और फिर हँसते-ज़ख्म दे कर
उड़ गयीं थीं भोर के पंछियों सी
लौट कर तो न आईं पर...
छोड़ गयीं कुछ सुलगते प्रश्न
अतीत की कोठरियों में,
हृदय-पटल पर
बेज़ुबान लम्हों को
जो अलंकृत हैं...
पलकों की कोरों की
अभिव्यक्तियों में,
सीप के मोतियों की तरह.…
ये साक्षी हैं उन अनुभवों की,
जो आज तक बसे हैं स्मृति-पटल पर,
आँखें धुँधला गयी हैं तो क्या?
मन के आईने में तो अक्स
साफ़ नज़र आते हैं,
कोई देखे तो सही,
पर किसे फ़ुर्सत है पास बैठ कर
बतियाने की?
प्रेम के अनुभवों को बाँटने की.…
उनसे कुछ सीख पाने की.
अकेलापन ही बाँटता है तनहाई को,
सुगबुगाती यादों को, अँधेरी रातों में,
बड़ी ही निर्मोही हैं बुढ़ापे की ये लकीरें,
सुलगती रूह के स्वरों को उभार कर
आखिरी मंज़िल के निशानों की गठरी खोल कर
पलकों को मूँदने पर विवश करती हैं
फिर जलती लकड़ियों के बीच इस देह को
ज़रा भी पीड़ा का अहसास नहीं होता,
धू-धू कर जल उठता है सब कुछ
नश्वर शरीर के साथ
रह जाती है पवित्र आत्मा कोरी सी
जिसमें नहीं पड़ती कोई लकीरें झुर्रियों की।