लिबास-ए-मुफ़लिसी
लिबास-ए-मुफ़लिसी
कल शब मैंने अपनी सारी चाहतें जाला के देखी है
जब से मैंने उन नन्ही आँखों मे बेबसी देखी है
खिलौना ना मिलने पर कितना रोते थे ना तुम
मैंने उन हाथों की रेत से दोस्ती देखी है
खाना खिलाने के लिए माँ को कितना परेशान करते थे तुम
कल राह चलते चलते मैंने जिंदगी में माँ की कमी देखी है
भूखे घूमते है अमीर होटलों में
मैंने एक माँ बाप की लाचारी देखी है
सर्दियों में तुम्हे अपने कम्बलों में कितनी ठंड लगती है ना
कल घर से निकला तो सड़क के किनारे एक सोई बच्ची देखी है
सभी अपनी प्रेमिकाओं को खुश करने में लगे थे
मैंने कल भरी दोपहर बचपन फूल बेचती देखी है
आँखें नम होती है तो हो जाने दो अभिषेक
मैंने तो दर्द में भी लोगों की हँसी देखी है