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Mukul Kumar Singh

Classics

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Mukul Kumar Singh

Classics

लड़ रहा हूं

लड़ रहा हूं

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 क्या नाम है मेरा! क्यूं पुछते हो ऐसा, मत पूछो मेरा नाम।
बचपन से आज तक ऐसा नहीं किया कोई काम।
 जिन कामों से शायद होता मेरे देश का नाम ऐसा कुछ भी किया नहीं।
जब से होश संभाला हमने केवल लड़ना सिखा पर थकना सिखा नहीं।
आंखें खोलते हीं खेलते खेलते हिंसा करना पहचाना,
बड़े होते हीं बचपन के मित बन गया बेगाना जबकि थे एक समाना।
बचपन छोड़ किशोरापन पाया नये स्वप्न दर स्वप्न सजाया।
ठानी कुछ नयापन लाने को, अपनी पहचान बनाने को,
 लड़ते रहे लड़ते रहे हार ने भी कुछ नहीं सिखाया।
तो क्या हुआ मैं लड़ना छोड़ूं कैसे जब उद्देश्य सामने और मंजिल थोड़ी दूर।
वह युद्ध भी क्या जिसमे हार का स्वाद न हो,
जीत तो बेकार है बेजान है तभी तो जीत का अहसास हीं भर देती है दंभ भरपूर। फिर भी लड़ रहा हूं लड़ रहा हूं एक नौकर बन चकाचौंध में जीने को तरस रहा हूं।
कहने को स्वाधीनता आवेदन पर आवेदन आज या कल अवश्य मिलेगी पराधीनता।आई ए एस,आई एफ एस,आई पी एस सभी पात्रता की शर्तें पुरी करें,
अशिक्षित हो या गुंडों का लोकतंत्र जिसके आगे पीछे एड़ियां बजाते फिरें।
इसीलिए मैं लड़ रहा हूं देखो मैं लड़ रहा हूं , देखते देखते स्वप्न टुटे उमंगे हो गई ठंडी,
न दुकानदार न खरीददार। दौड़ा अर्जित प्रमाण पत्र ले हाथ पर खाली थी मंडी। किसी ने कहा अबे ओ अक्ल के अन्धे,
अब भी समय है तुझे तो लड़ना आता हीं नहीं,
यहां तो एक पर एक लगें हैं अपनाते अनगिनत धंधे।
सुनो सुनो घबराहट ने भी अलविदा कह एक लड़ाकू का मजाक उड़ाया,
और पुनः चरैवेति चरैवेति साहस को जगाया।
यह सब कोई नई बात नहीं है जो लड़ रहा हूं,
पहले भी लड़ रहा था और आगे भी लड़ूंगा सो टूटे तटबंधों को देख ठहरना क्यूं।
आह: गीतोपदेश भी बड़ा अजीब है जो कहे कर्म किए जा फल तो मिलेगा ही,
यह भी कोई बात है स्वेदों का जलाशय निर्माण करो और फल कोई अन्य ले भागेगा।
लड़ते-लड़ते लहूलुहान हो गया पर उदर स्फित कर वो ऊंची भाल वाला धनवान बन गया।
मेरा रूधिर नर्दमा का तरल हो नरक वास करे,
बार बार गिरा फिर भी उठा मन का विश्वास रगों में उर्जा भरे।
चमचमाती ये अट्टालिकायें मेरी योग्यताएं हैं जैसे किसी कवि की कविताएं।
 मैं भी देखूंगा कब तक अवहेलित रहेगी मेरी लड़ाई,
जब तक मैं लड़ता रहूंगा होगी सबकी बड़ाई।
अपनी परवाह नहीं पर सबकी मंगल कामनाएं करता हूं, इसी से तो लड़ रहा हूं हर पल लड़ता रहता हूं। जा पहुंचा कारखाने में कोयला डाला भट्ठी में चिमनी से धुआं निकाला,
 धन सम्पदा के रुके कदम चक्र के ताले को खोला,
बाज के डैने पर बैठ गगन चुमने उड़ी उन्नति ज्वाला।
सरिता की प्रवाह को रोकी बांध बनाया, तड़ित शक्ति ने जन जन का अंधेर मिटाया,
तटिनी के दोनों तट को जोड़ा वातानुकूलित से उष्ण अत्याचार भगाया।
 जीवन की गाड़ी आरामदायक हो इसी से तो लड़ रहा हूं ,
अपने लिए नहीं भविष्य के खातिर लड़ रहा हूं लड़ रहा हूं।
एक चिकित्सक हूं रोगों से मुक्त रहें विषाणु -जीवाणु निकट न आए लड़ रहा हूं, विनिमय में खुद को धन रुपी रोग से लड़ा रहा हूं।
प्रशासन का दायित्व ले न्याय दिलाने-अपराध मिटाने दैनिक दौड़ता हूं, राजनैतिक छलावे में फंसने को आतुर जी हुजूरी करता हूं।
निज मर्यादा को पाने जन जन में विश्वास जगाने लड़ रहा हूं।
थकावट मेरे पास आने में भी झिझकता है, आज का जनगण पूर्वजों को मूरख कह मेरी उर्जा भक्षण करता है।
शिक्षितों की बढ़ती भीड़ देश समाज को विस्मृत करते केवल अपनी बात करता है, उन्हें राह दिखाने बन अध्यापक सदैव सामने आता हूं।
न रूकुंगा न ठहरूंगा बस हर पल आगे बढ़ना है,
 मेरे करों में वो बागडोर है जिस पर मातृभूमि का गौरवान्वित होना है। सो लड़ रहा हूं लड़ रहा हूं।
कभी कभी कुंठित हो जाती है रणांगन में लड़ने की धार,
देश को दिशा दिखाने वाले नेता मां पर करते वार।
लोकतंत्र की शक्ति से चूर नागरिकों के पैसों से पहुंचा फर्श से अर्श,
विरोधी बनकर दलीय आदर्श के आगे राष्ट्रहित को दूर रख कुर्सी से आकर्ष। भ्रष्टाचार से लड़ते-लड़ते खुद बन गया भ्रष्टाचारी,
नारी के सम्मान के खातिर ब्लातकार से लड़ते-लड़ते खुद बन गया ब्लातकारी।
बड़े बड़े अधिकारी हीं जब अपराध का पालन करता है, कैसे ठहरे औकात हमारी! तब भी लड़ रहा हूं लड़ रहा हूं।
ठोकरों पे ठोकर मिलती है निराश होकर गहरी सांसें लेता हूं,
पराजय को सामने देखा पर तब भी जीवट बन युद्ध जारी रखता हूं।
देश वासी चैन से सोना सिमा पर चौकस रहता हूं,
 ताकि मेरी आंखें खुली रहें जैसे हीं उठी कोई बुरी नजर जन्नत की राह दिखाता हूं।
सिना छलनी होता है जब जिनके खातिर सिने पर गोलियां खाते हैं,
संसद और चौराहे पर वही लोग हमसे प्रमाण मांगते हैं। सबसे ज्यादा अपमानित होना पड़ता है जब स्वार्थी गेह के शत्रु कहते मर गया तो क्या हुआ मुफ्त का वेतन लेता है।
अब कैसे समझाऊं इन चोरों को जो मादरेवतन के पीठ में खंजर भोंका करते हैं,
मानव बन भेड़िया जन्मा जो सदियों से जनगण का लहू से तृष्णा मिटाते हैं।
फिर भी मैंने हार न मानी अपनी वसुधा को बचाना है, पावन संस्कृति का परचम लहराना है।
यदि हमारी जननी है तो मेरा अस्तित्व रहेगा,
जन्मदायिनी की रक्षा में हर जनम में तन मन धन समर्पित होगा।
यही लक्ष्य, यही उद्देश्य हृदय में प्रज्जवलित हो और आज भी लड़ रहा हूं लड़ रहा हूं।


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