हम तो सजते हैं
हम तो सजते हैं
हम तो सजते हैं ऐसे ही है नित्य हमारा काम,
हंसता है मानव आसुरी वृत्ति का दे देकर नाम।
कितना कहोगे कहते रहो कोई फर्क नहीं पड़ता,
अरे मैं तुम्हारी तरह कोई नकाब नहीं पहनता।
जो भी हो एकदम सत्य है मानवता का जीवंत आइना,
सूर्य को दैनिक अर्घ्य देते और उसके हीं नाम पर पाखंड पुराना।
मुझे देखो जैसे-जैसे दिवस का अवसान होता है,
वैसे वैसे कृत्रिम पद्धति से हीं सही नयापन का स्वागत होता है।
सबकी आवश्यकता उम्र के अनुरूप चाहे कली हो या फूल।
प्रातः से हीं योजनाएं बनाई जाती है मिलने या बिछड़ने की,
ग्राहकों का बाजार सजता है नये नये उम्मीद जगाने की।
कोई अपने को स्वयं बेचता है उपभोग्य बनकर,
कोई खरीददार खरीदता है बिना किसी भेद भाव कम से कम मूल्य पर।
सभी जानता है यही वो उपयुक्त समय है सच्चाई,
सूर्य से भी कहीं ज्यादा उज्जवल है शशी ने रजनी को अपनाई।
मरने वाले को पता होता है कि उसकी हत्या होगी,
और हत्यारा अपनी क्रूरता के साथ लैस है उसकी वचनबद्धता दिखेगी।
पालीथीन के सीट पर दोस्तों के साथ शिकार को बोतल से,
जब शिकार नशे में लड़खड़ा बड़े प्यार से कंठ को अस्तूरा चुमे।
जिस्म का बाजार सजता है बस पैसे निकालने की देर है,
जैसा पसन्द है वैसा हीं मिलेगा अग्नि के फेरे लगाना बेकार है।
विवाह एक ढोंग है नाटक है काम वासना की पूर्ति मात्र है,
पैसों की फिजूलखर्ची नकली पति पत्नी स्वार्थी इंसा कूपात्र है।
परंपरा बेकार अपनी संस्कृति की व्याख्या पर विदेशियों की छवि,
ढूंढ नहीं पाते शब्दों को आलोचना करने के लिए कवि।
तभी रात की गलबहियां व मदिरा मद मस्त तरलता में,
सृजीत हो जाते हैं ताल छंद हीन बेअसर रचनाएं काव्य में।
दिवस में शिक्षा का बाजार आदर्शों का पाठ पढ़ाता,
असमय हीं कली खिल न पाया प्रबंधन की सह तथा रैगिंग की छाया।
तरह तरह के फैशनेबल पोशाकों रेडीमेड एमीटेशन से लैस,
दिवस की सादगी दिखा दिखा गेरुआ वस्त्र में सजे होते भैंस।
खादी के रंगो में हाथ जोड़कर खड़े रहते देश के नेता,
प्रतिक्षा करता है मेरी जयचंद -मिरजाफर हिन्द को यवनों के पांव तले सौंप देता।
एकता के नाम व्यक्ति स्वाधीनता के सामने बेकार,
जैसे ही मैं आउं स्वयं नारियां अपने सुनहरे सपनों को करते साकार।
दिवसीय लौं में बच्चों के अधिकारो को रक्षा करने को आतुर,
मेरे राज्य में इन्हीं शावकों को बना विकलांग भीख मंगाते हैं ये चातुर।
हम सजते सजाते हैं मानवता के छद्म रूप रुप को दर्शातें हैं,
हर मानव विकारों से ग्रस्त हो मा बाप को दर दर की ठोकरें खिलाते हैं।
उंच नीच एस सी एस टी श्रेणी में जोड़ योग्यता को सागर में डूबाते,
अयोग्यता को बड़ी बड़ी कुर्सियां दे देकर रेलवे की धज्जियां उड़ाते।
अरबों-खरबों गरीबों की कमाई क्षण भर में व्यर्थ हो जाती है।
सैनिकों की शहादत को सरकारी षड्यंत्र कह कर लोग जबाब मांगते हैं,
बहुसंख्यकों की हत्या को धर्म निरपेक्षता का लोग कमीज पहनाते हैं।
बोलने की स्वाधीनता के नाम पर औरों के अधिकार छीन लेंगे,
लोकतांत्रिक शक्ति से परिपूर्ण तत्व सभी मिडिया को खरीद लेंगे।
अब आप स्वयं हीं तय करो दिवस या तमस में कौन सही है,
इसी लिए तो हम सजते और संवरते है झूठी महफिलें सजाते नहीं हैं।
