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Mukul Kumar Singh

Others

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Mukul Kumar Singh

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मैं

मैं

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कल भी था, आज भी हूं और आने वाले समय में भी रहूंगा।

यह सत्य है कि मेरा अपना कुछ भी नहीं है, पर सबको अपना कहूंगा।

आंखों को खोला तो एक असहाय श्वान शावक की भांति किसी कोने में पड़ा था।

सबको अपनी-अपनी पड़ी थी, भूख मुझे लगी, क्रंदन करता रहा पर मां को नहीं पाया।

भूखे प्यासे रोदन करते करते न जाने कब नींद रानी ने अपने वक्ष से लगाई।

अब तो इसी रोजनामचे में फंसकर भूल गया कि मैं कौन हूं!

दैनिक प्रात जागरण जाए निशा तारकोंऔ के साथ मानव मात्र को ललचाए।

समय ने सुन्दर पंख देकर सारे जग की भले बुरे की सैर करवाई।

ख्याल में नरम कोंपलें उपर नीचे हुई और देखा जल-थल-गगन सर्वत्र मैं ही हूं।

उठती गिरती सागर की लहरों पर खेलते खेलते किनारे पर आ लगा हूं।

एक नई दुनिया देख कर विस्मित हो चौंकने की बारी थी मेरी,

मानवता की परिभाषा ढूंढने में अथक परिश्रम कर लवण छुट गई सारी।

देश-विदेश सारे जहां में नकली हंसी का साम्राज्य, जीवन में भय और चाटुकारिता का राज्य।

आदर्शवादियों के आदर्शों का टूटती टांगें, मन में भ्रष्टाचार मुख में राष्ट्र की बातें।

चारों ओर लोहित रूधिर का प्रवाह लोकतंत्र का दंभ,

नर हो या नारी, शिशु हो या बुजुर्ग, माता पिता, भाई-बहन के हृदय में अहं।

सर्व जन को गोली मारे, व्यक्तिगत अस्तित्व को बना दिया प्रधान।

व्यक्तिगत पहचान प्रतिष्ठित करने की लड़ाई सामाजिक रिश्तों की हो रही जग हंसाई।

ईश्वरीय उपासना के नाम पर धर्मों पर चल रही है भेद-भाव का बन्दुक,

भाषाई क्षेत्रीयता को केन्द्र कर घर घर में भर रहे हैं नेता नोटों से सन्दुक।

अधिकारियों की भाषा अंग्रेजी, आवेदन पत्रों के चेहरे पर छाई है अंग्रेजीयत

सिपाहियों,दफ्तरियों, खेतीहर मजदूर दक्षता से लैस मातृभाषा में उं आं करते हीं काला अक्षर पढ़ कर बन गए हैं भैंस।

चतुर्दिक छा गई इण्डियन कहलाने वाली आंधियां,भारतियता मर गई है हो रही है हिन्दुस्तानियत की फजीहत।

नारियों का गुणगान पुरूषों को बनाते शैतान, कहीं अंधी वासना के आड़ में पुरुष की लपलपाती जीभ से टपकती लार रोकने विवाह रूपी व्यवसाय में पैसा हीं बनाए पति-पत्नी के रिश्ते।

बस थोड़ा ठहरो शोर मत मचाओ देखो की मैं कौन हूं! अभी तो थोड़ा सा हीं सुनाया।

ले चलता हूं चंचलता के पास मम्मी का मूड ने बदला पापा की सांस। राकेट तो फर्स्ट है तू भी सैटेलाइट से कम नहीं,वो अर्थ का चक्कर लगा रहा तू मार्श पर अधिकार कर।

आखिर राकेट के पापा दो लाख की मंथली हर विषय पर दो दो ट्यूटर,

करें तो करे क्या दिन को ठेला लगाए रात्रि में पढ़ाई और परीक्षा में स्टार फिर भी उसकी डिग्री हुई बेकार।

अब भी नहीं समझे तो कब समझोगे पहले मैं से हाथ मिलाओ योग्य नहीं तो क्या हुआ सूट-बूट में होगी स्वागत सत्कार।

मातृभक्त और देशभक्त की जनता करे परिहास, मरने वाले सीमा पर मरे अपने को क्या जाता है गांव ज्वार को तोड़नेवाला बनाता स्वर्णाक्षरों में सुन्दर इतिहास।

सोच रहा हूं कि लोगों में विभेद क्यों,सबके दो दो आंखें और दो दो कान हृदय भी एक दो टांग और दो हाथ परन्तु इच्छाओं में अलगाव क्यों?

इधर भी देखा उधर भी देखा उपर देखा नीचे देखा समझ न आई हिसाब, गालों पर अपने थप्पड़ मारा देखा तीन उंगलियां मेरी ओर मतलब सब में मैं ही हूं यही मेरे भेजे में आई।


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