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Mukul Kumar Singh

Others

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Mukul Kumar Singh

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रक्त गेंदा

रक्त गेंदा

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अरे वाह क्या बात है तुम्हारा 

हमने तो कभी सोचा भी न था।

प्रकृति भी निखार देगी तेरा रूप सारा

युवरानी बन कर आई ऐसी कल्पना न था।

सोच रहा हूं उस समय को जब मैंने अनमने ढंग से तुझे अपने छोटी सी बाग में लाया।

शरत् की अंतिम बेला में भींगा मिट्टी में बड़े प्यार, स्नेह से आहिस्ता-आहिस्ता बिठाया। हल्की-फुल्की बारिश की बूंदें तुझे सहलाती, और तू नये कोंपलें से सजी धजी पवन के झोंकों पर डोली मेरा अंतर्मन हर्षाया।

समय गुजरा मेघ मुक्त आकाश धूप की आन नरम हो गई और एक ओजस्विनी नये कलियों से भरी तेरी काया। 

कभी सोचा न था यह अनूठी गेंदा होगी हालांकि कई बार गुजरा इसी के बाजू से चौंकने की बारी ज्यों इस पर दृष्टि आया।

खिल उठी कलियां,भौरें-मधुमक्खी की गुंजन वातावरण को अपने रंग में रंग डाला। मैं भी अछूता नहीं रहा इसके पंखुड़ियों को देख मैं हूं दंग।

प्रकृति के इस अनुपम देन ने कहा आये हो तो कुछ ऐसा कर जाओ अस्तित्व की प्रतिष्ठा कर जाओ।

इस पार्थिव जगत में आये तो जाना भी तय है, समय रहते कर्म करो आगे बढ़ते जाना निश्चय है।

तेरी सुन्दरता कोमलता ने उन पिशाचों को ललचाया। ईश्वर वंदना के आड़ में पुष्प को तने से जुदा कर दिया।

एक सुमन से भी ईश्वर प्रसन्न फिर अनगिनत सर को धड़ से अलग करना कौन सा बुद्धी मानी है।

प्राणहीन होकर भू धरा पर जड़ता से, सौन्दर्य खोकर कीट पतंगों ने मुंह फेरा रंगहीन बन एक मात्र सत्य को गले लगाया और सुनाई अपनी कहानी। जीवन की शुरुआत में एकदम शैशव की किलकारियां भरी, यौवन ने सबको ललचाया।

अच्छाई बूराईयां सबका आभूषण होता है, परन्तु गलतियां हीं प्यारी और अच्छाईयों में अनाकर्षक दिखाई देता है। 

रक्त गेंदा को दानवों ने पसंद किया और निष्ठूर की भांति तने से अलग कर मसल दिया।

इतना होने पर भी कष्टों का अंत कहां, बसन्त मुंह फेर कर चला गया ग्रीष्म की दावदाह ने झुलसाया जल के अभाव में मिट्टी के कणों को बिखरा, जड़ को हीं रोग ग्रस्त बनाया।

मैं भी उन दुष्टों की तरह रक्त गेंदा के आकर्षण त्याग कर तने को पकड़ कर एक झटका दिया,उसकी यंत्रणा की चित्कार सुन नहीं पाया और वह तड़प तड़प कर मुझे अभिशापित करते हुए जीवन से हाथ छुड़ाया।



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