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jaya chaudhary

Tragedy Crime

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jaya chaudhary

Tragedy Crime

लावे की बौछार

लावे की बौछार

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दिखता पानी जैसा कुछ था मगर,

महसूस लावे की बौछार सी।

असह्य दर्द से बेबस चीखती - बिलखती,

तड़पती जमी पे जलन से रंगहीन तितली सी।

भरी कलम की तरह मुँह सीकर,

कितना कब तक चुप बंद रखू।

कोई कागज ऐसा भी तो हो,

जिससे सब कुछ लिख बोल सकूँ।


क्या कहूँ दर्द अपना दुनिया से,

रुह कराहती है और जिस्म मोम सा पिघलता है।

मानवता भी शर्मसार तार-तार,

सूर्य-चन्द्र का ग्रहण भी कम ही लगता है।

मेरा क़ुसूर बस इतना सा ही तो था,

कि प्रत्युत्तर में मैंने इनकार किया था।


बता औकात कि तू क्या-क्या था,

नामर्द भेड़िया या खूंखार दरिंदा था।

तुम्हारी कायरता की घड़ी ज़हन में,

अब भी रुक-रुक शाय चलती है।

उस तेज़ाब से चेहरे ही नहीं,

झुलसी इंसानियत भी सहमी-सहमी है।


क्रूर पुरूष तुझ से तो सोच-सोच,

हिंशक पशु भी सहम जाए।

हाथों में लेकर लावा तुम जब-जब,

पुष्प सी नारी झुलसाने आये।

ऐसी शर्मनाक हरकत वालों को,

इस घृणित कर्म का कुछ अंजाम तो दो,

हो पाये इनको अहसास जरा भी,

इन्हें भी तो ऐसे जलते छाले दो।


सोचते हैं तेरे ज़हन में ये,

लावा कहाँ से आया होगा,

हाथों में आने से पहले ये तेज़ाब,

तेरे कुटिल दिमाग में छाया होगा।

कितनी बौछार सहेंगी बेटियां,

कभी कोख में,कभी दहेज़ की

और कभी अपमानों की,

कभी भेदती बौछार दूषित नजरों की,

तो कभी घर -घर में हिंसा की।


भयंकर ज़ख्म भर भी जाए वक़्त संग,

झुलसी आत्मा की कराह बाकी होगी,

कापुरुषों से भरी इस दुनिया के अंतस में,

इंसानियत जगानी भी बाकी होगी।



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