"मैं गंगा थी"
"मैं गंगा थी"
स्वेत हिम् आँचल
छोड़ अपना
छम छम चली
लहर लहराकर
चीरकर सीना वसुधा
का, हो उन्मुक्त
हर बाधा तोड़
बही खिलखिला कर
बिखेरा जीवन ही जीवन
चली जहां -जहां
कल -कल, छल -छल
छेड़ कर संगीत मधुर
उकेरे चित्र अनगिनत
धरा के कैनवास पर
हर प्राण -प्राण को
इन्द्रधनुषी रंग देकर
मेरे किनारों घाटों पर
बसकर तुमने, कई
शताब्दियां दशक
देख लिये, कितनी
सभ्यता तहजीबें
संवार कर, परिवर्तन
खुद में कर लिए
बुलाया तुमने माँ
कहकर, थीं तो मैं
सिर्फ गंगा, पतित पावनी
ये शब्द, ये आदर
खुश थी मैं भी पाकर
किये पूजन नदी को
देवी बनाकर, तो मैं भी
वातसल्य लुटाकर
तुम पर भावविभोर।
ह्
रदय से मैंने भी तेरे
सुख-दुःख कितने
आँचल में समेटे चुपचाप
राख -खाक,शुद्ध -अशुद्ध
पूजन, शव, मैल सभी
किये शान्त स्वीकार।
अब हो रही प्राणरहित
दुखी संतप्त, तुम
बालकों की करनी पर
चाँदनी सदृश मेरे मीठे
जल को, कर गए
दूषित जीवन रहित
हूं भाव शून्य, संघर्षरत
स्वअस्तित्व हेतु प्रयासरत
किये थी धारण धवलजल
वरदायिनी गंगा निर्मल
हवन, पूजन, अभिषेक
बता कैसे कर पायेगा
संघर्ष करती छटपटाती
सांसों की शांति को
वो पावन गंगाजल
कहां से लाएगा
रहने दो सिर्फ गंगा
मुझे तुम मानव संभल
खोखले पूजन से
थक चुकी तेरे बस
न दे कीचड़ का रूप
बहने दे मुझे अविरल
बहने दे मुझे अविरल।