कालजयी गुरू
कालजयी गुरू
डगमगाते लड़खड़ाते
कदम गिरते उठते,
मजबूत खड़ा किया तुमने
ज्ञान के स्तंभों से,
छोटी नाज़ुक उंगलियों को
कलम पकड़ा के,
वर्णों के मोती इक्कट्ठे कर
शब्द सागर किये तुमने,
पिता तुल्य सम्बल तुम्हीं
मासूम आँखों के,
वाणी की ममता भी हो
तुतलाती बोलों के,
मजबूत धुरी भी हो
जीवन किले की पहली,
पहचान का दर्पण भी हो
अच्छे बुरे को समझने का,
निर्माता कुम्हार बनकर
साकार करने का बल हो
कच्ची गीली मिट्टी को,
कुछ सीखने की खुशी हो
नन्ही सी आँखों में
अज्ञान तम को चीरते हो
ज्ञान के प्रकाश से,
भविष्य संवारते हो
छोटी सी कक्षाओं में
कालजयी तुम गुरु हो
सच्चे निर्माता बनकर
मार्गदर्शी वाणी से
जीवन के पाठ सिखाते हो,
फैलती जब शिष्य की कांति
चिर आत्मिक शांति भी हो,
उज्ज्वल राष्ट्र बनाने को ततपर
अनमोल तजुर्बों की
सृजनशील सीख भी हो।