मन से माँ
मन से माँ
मन से वो माँ,
हो चुकी है घर की,
चौबीसों घण्टे एक घड़ी,
बांधे रहती है,
अपनी पांचों इंद्रियों पर,
अपने परिवार,
के लिए।
नाचते हैं,
रोज उसके हाथ पैर,
360 डिग्री पर
पूरे घर मे।
पहुंचती है,
अपनो के मन मे,
रेंग कर , घिसट कर,
कूद कर या जबर्दस्ती,
और घुसती हुई बुहार देती है,
अनावश्यक बातें,
उलझने।
देख आती है,
हर कोना कोना,
लिख लेती है अपने मन के,
पन्नो पर हर उम्मीद।
बांचती है हर रात,
नींद में जाने से पहले,
दिन भर का जमा घटा,
कभी कभी वह,
सिलती भी है अपना,
उधड़ा फटा दिल,
अंधेरे में।
पर फिर,
सुबह होते ही,
वह सजा देती है,
दिल पर हर सीवन को,
संतुष्टि के सितारों से,
गुनगुनाती है,
अपना प्यारा गीत,
परिवार के,
साथ होने का,
देते हुए धन्यवाद,
ईश्वर को,
मन ही मन।
