नारी तुम केवल श्रद्धा नहीं
नारी तुम केवल श्रद्धा नहीं
रूप बताकर तेरे अनेक
सबको गया भरमाया
तेरा सरल एक इंसानी रूप
इंसान ही नहीं समझ पाया
वैसे खुद तू भी अलग है
सबसे यही दिखलाती है
जिस रूप में रहना हो
फायदेमंद वही दर्शाती है
बात किसी के दोष का नहीं
सामाजिक रवायतों का है
बड़ा मुश्किल है इन्हें तोड़ना
समझ के अपने दायरों का है
ये दुर्गा, लक्ष्मी, चंडी, गौरी
शब्द जानबूझकर गए चिपकाए
देवी बनाकर रखा सबसे दूर
ताकि इंसान कौन तू जान न पाए
ये वक़्त अभी भी नहीं बदला
झूठ पर सच का है मुलम्मा
सम्मान का नाटक करने लगे हैं
मना कर साल में एक दिवस मेरी अम्मा
वैसे उम्मीद रखनी चाहिये कि
शायद कल कुछ तो सोच बदलेगी
कोई किरण, मैरी या लक्ष्मी उठेगी
नजरिया बदलेगा, समीक्षा सुधरेगी
माना ये बदलाव, एक लम्बी डगर है
पर चलना तो शुरू करना ही पड़ेगा
कविता, कहानियाँ भी लिखी जायेंगी
सड़क पर उतरकर भी कोई लड़ेगा
यह है मेरी इक मंद्र आवाज,
मगर एक खुद से किया ये वादा
नारी तुम केवल श्रद्धा नहीं
हो एक चट्टान सा अटल इरादा!