क्यूँ न वो फागुन भी आये?
क्यूँ न वो फागुन भी आये?
क्यूँ न वो फागुन भी आयें
जिसमें खिले प्रेम के रंग जो
बस प्रियतम के लिये ही न हो
हो जिनमें सराबोर सारी मानवता
जिससे द्वेष का मुंह काला हो जाये।
क्यूँ न वो फागुन भी आये
जिसमें खिले भाईचारे का रंग जो
बंधुता को एक रंग में रंगे
हो जिनमें सराबोर हर एक भारतीय
जिससे जातीयता का मुंह काला हो जाये।
क्यूँ न वो फागुन भी आयें
जिसमें दिखे सबको हर बेटी
पलाश के फूल सी
जिसे कोई भी मसल कर
फीका न करें उसका चंचल रंग
हो जाये इस फागुन हर सुता सराबोर
और बेफिक्र होकर खेले रंग
जिससे हैवानियत का मुंह काला हो जाये।
क्यूँ न वो फागुन भी आये
जिसमें न हो गरीबी का पक्का रंग
जो चढ़कर चेहरे को फीका न करे
क्यूँ न हम पग बढ़ाकर दे
अपने हिस्से का
एक चुटकी रंग
हो जिससे सराबोर हर एक मासूम चेहरा
जिसे हक है खुश रहने का
जिससे लाचारी का मुंह काला हो जाये।
क्यूँ न वो फागुन भी आये
जिसमें सतरंगी हो धरा भारत की
जहाँ एकजुटता,सहयोग और
समानता के फूल खिले
और बिखरे खुशबू चहुंओर
जिससे हो सराबोर मेरी भारत मां
अपने ह्दय प्रांगण की फलीभूत बगिया को देख।
क्या आयेंगा ऐसा फागुन कभी ?
कब...........?
बाट जोहता हर भारतीय
एक आस।
