क्या विवशता है
क्या विवशता है
खुले आसमान की चिड़िया थी मैं,
पंख काट कर दरिंदों ने जमीन पर गिराया है,
इश्क़ में धोखेबाजी का शिकार बन
कोठे पर कोड़ियों के दाम में हमें बेचा गया है।
शोभा वर्द्धित करती थी पीहर की में,
आज बदन की नुमाइश को सर-ए-आम किया है,
नज़र जहां ऊँची कर चलती थी कभी
आज ख़ुद के नजरों से बेआब्रू कर गिराया गया है।
हर रोज लगता मेला जिस्म की नुमाइश की,
सर से पैर तक गंदे नजरों से बलात्कार किया गया है,
आबरू-ए-यार अब कुछ ना रहा हमारे पास
वहशी दरिंदों ने हमारे बदन पर अपना हक़ जमाया है।
हर रात होती नीलामी अपने जिस्म-ए-दामन की
वैश्या के नाम से हमारा इज्ज़त अफ़जाई किया जाता है,
अब विवशता की हालत पर सिसकियां न निकले
हमारे जिस्म की गर्माहट से शरीफ़जादों का भूख मिटता है।
विवशता की हालत पर सिसकियां ना निकली,
होठों को हाथों से धर दबोचे अंगार से सिला जाता है,
टूटे जिस्म पर फिर से जुल्म और हैवानियत का
नया किस्सा उस चिथड़े दामन पर दाग लगाया जाता है।
बेबश के आलम में मौत ना नसीब होता है,
पिंजरे की मोर बन कर पग में बाँध घुंघरू ये नाचता है,
टूटती हुई सांसों से जिंदा रहने की आशा है,
विवशता की घिनौनी हरकत वैश्या को जन्म देता है।
