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Bhawna Kukreti Pandey

Tragedy

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Bhawna Kukreti Pandey

Tragedy

हम ज़रा घरेलू

हम ज़रा घरेलू

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हम ज़रा

घरेलू औरतें

अपने पतियों की कविताएं

उतने चाव से नहीं पढ़ती

जितना हम छौंका लगाती है घी का

कवि बने पति की मनपसंद

काली पीली दाल में।

हम ले कर बैठती हैं

अपने परिवार के बच्चों को

हर शाम पढ़ाने भाषा व गणित

हमें तब फुरसत नहीं होती

पति की श्रृंगार रस में डूबी

कविताओं के कवित्त

या तुकबंदियों के मिलान को

समझने की।

हम दबाती हैं पैर

बुजुर्गों के बहुत रात तक

जब तक निश्चिंत नहीं हो जाती

उनकी गहरी नींद से

नहीं झांकती अपने कमरे में

जहां उनकी डायरी में

बेचैन हो कर लिखते हैं वे

यादों में भीगे -डूबे

प्रेयसी के संग सपनो की

उन्मुक्त उड़ान पर।

लेकिन जब

कभी थक कर बिस्तर पर

सीलिंग ताकते पड़े हुए

अपने पल भर के ख्यालों में

हम थामती हैं कलम

सी देती हैं भावनाओ की महीन सुई से

शब्दों में उनके प्रति

अपना प्रेम

हम तब भी

झिझक से लिख नहीं पाती

उनका नाम अपने नाम संग

लेती हैं सहारा छद्म चरित्रों का

जहां प्रेम के रस से गूंथ देती हैं

उनसे जुड़े अनकहे जज्बात

और फैला कर सुखाती है

दिल के पन्नो पर हमारे

सलोने शर्माते हुए

उनसे जुड़े सपने।

हमारी लिखी वे

नितांत निजी कविताएं कहानियां

कहीं छपने को नहीं होती है

धुआं हो जाती हैं हर सुबह

उबालते हुए दूध बच्चो के लिए

बनाते हुए स्वादिष्ट नाश्ता

सबके लिए

पुराने चूल्हे पर।

कवियों की हम

ज़रा घरेलू पत्नियां

इजाजत नहीं दे पातीं

खुद की कल्पनाओं को

पति की कविताओं से

उलझने की।

किसी दिन जब

उम्र बढ़कर देगी हमे

उम्र की ढाल तब शायद

लिखेंगी हम भी भावनाओ की

स्याही से इंद्रधनुषी,

हर रस से भरी कविता जो

कवित्त को धता बताती

तुकबंदियाँ मिलाती

कल्पनाओ के पार

उड़ान भरती हुई

चिढ़ाएगी उन्हें लेकर

किसी बिसरे प्रेमी का नाम

पूछेंगी ठिठोली में अपने

कविमना पति से

कहो जी अब

कविता का स्वाद कैसा है?


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