लेकिन या लेखनी
लेकिन या लेखनी
कलम को हाथ में लेकर ऐसे ही घुमाने लगी,
सोच के बवंडर में डूब गई,
फिर दिल के कोने से एक आवाज आई--
'किस लिए जीया जाता है,
किस लिए दुआएं मांगी जाती है,
जो भाता है,वह खुशी ही देता है,
हमेशा दुसरों के लिए नहीं,
कभी कभार अपने लिए जीया जाता है !
लिखनी शुरू कर के तो देख,
खुशी उसमें अपरम्पार है,
बयान न कर सके यह लफ्ज़,
कलम-ए-सियाही देते ये उपहार है।'
'लेकिन' का कगार छोड़ कर,
'लेखनी' पर जोर देते हैं अब,
मोहताज नहीं है किसके साथ की,
अब शब्दों से खुशी ही मिलती है।
