क्या मुकम्मल भी प्यार होता है
क्या मुकम्मल भी प्यार होता है
आँखों में बसी तस्वीर तुम्हारी
आशिकी पल में बयां कर देती है
शब्दों से तुम्हारे हममें रोज रोज़
अल्फाजों की झड़ी भर जाती है
हाँ! मेरा स्वप्न लोक में हर रोज़
सौ सौ बार तुमसे मेल होता है
पहले नजाकत भरा स्वर मेरा
फिर रोज़ तुमसे ही प्रेम होता है
आज कुछ और इरादा मेरा
क्या मुकम्मल भी प्यार होता है
घंटों तक बैठे सोचतीं हूँ क्या
तुम्हें भी इसका एहसास होता है
ना बंदिश कोई ना रुकावट कोई
मिलन में देरी क्यूँ हमने डाली है
खुल ना जाये कोई बंधन फेरा
कसकर डोर तुमने संभाली है !