"क्या कहते"
"क्या कहते"
दर्द भी दिया हमको तो अपनो ने,फिर गैरों को क्या कहते
पेड़ काटा कुल्हाड़ी ने,फिर लकड़ी के हत्थे को क्या कहते
चोट लगी थी सीने पर,दवाइयां न थी किसी मेडिकल पर,
जख्म दिया था अपने नमक ने,फिर नासूर को क्या कहते
इतनी तकलीफ के बावजूद भी हम तो बहुत ज्यादा खुश थे,
गम मिला तो भी हमे साहिल से,फिर तूफानों को क्या कहते
मौत से ज्यादा तकलीफ तब होती,जब अपने लहू से चोट होती,
प्यास न बुझ सकी दरिया से,फिर नदिया के जल को क्या कहते
फिर भी हम जिएंगे ,रिश्तों के हर जहर को हंस-हंसकर पिएंगे,
गर हम गुलाब बन न सके,फिर शूलों के दर्द को क्या कहते
श्रीकृष्ण को बनाएंगे आदर्श,सत्य के लिये सहेंगे हम हर कष्ट,
सत्य,नेकी के लिये जी न सके,फिर खुद को इंसान क्या कहते
जीवन के इस अंधेरे में यदि हम सत्य के नगीने बन न सके,
फिर घट भीतर बैठे,इष्टदेव बालाजी को हम क्या कहते
रोज यूँही आईने में अपना रूप निहारने से कुछ नही होता है,
सत्य पर चल न सके,फिर शीशे-भीतर खुद को क्या कहते।
