कुहासा
कुहासा
छाया हुआ कुहासा, छाई है धुंध चारों ओर।
विकराल हुई है ठंड, दांत करते सबके शोर।
कुहासे की धुंध में, कुछ भी नहीं है दिखता।
ठंड के प्रकोप से, सब काॅ॑पता सा दिखता।
मुस्कुराते बच्चों का भी, मुरझाया चेहरा लगता है।
भीगा हुआ ओस में सब, अभी नहाया लगता है।
भीगे पंख परिंदे सारे, चुप हो दुबके नीड़ में बैठे हैं।
पेड़ों की कोमल पत्ते भी, ठंड से लगते ऐंठे हैं।
मुस्काते फूलों को देखो, शबनम गले लगाती है।
कलियाँ भी रवि किरण में, मुस्काती सी लगती हैं।
घना कुहासा धरती पर आता, अंधकार छा जाता है।
उतर के बादल आसमान से, जैसे धरती पर आ जाता है।
धरती के कुहासे के जैसा, कुछ के मन में छाया रहता है।
मन के कुहासे के कारण, कुछ नहीं दिखाई पड़ता है।
दूर करो मन का कुहासा, एक सूरज मन में चमकाओ।
जला रोशनी मन में अपने, अंधकार को दूर भगाओ।
मन का कोहरा जब छट जाता है, सब साफ़ दिखाई देता है।
जल जाती है मन की ज्योति, तब प्रकाश दिखाई देता है।
दुख और गम के सारे बादल, दूर सदा को हो जाते हैं।
फूलों सा जीवन खिल जाता है, ज्ञान चक्षु सब खुल जाते हैं।
