कुदरत की जंग
कुदरत की जंग
कुदरत के सब्र को आज़माया था,
आज कब्र तक जाने के काबिल न रहे,
धरती मां को सताया था,
आज अफसोस तक जताने के काबिल ना रहे।
सृष्टि ने यह कैसी जंग है रची,
शव तक दफनाने की जगह न है बची,
कैसा मौत का मौसम है ये,
सबके दिलों में बस खौफ बाकी है रे।
राजा हो या रंक,
हर कोई बेहाल है,
ऐसा तो सदियों में हुआ पहली ही बार है।
आज ताबूतों तक की पड़ गई है कमी,
आंखों में रह गई बस है नमी।
कुदरत ने खुद को निखारा है,
आज प्रकृति के सामने पूरा विश्व हारा है।
अब भी मनुष्य का वही हाल है,
सबको बस जाति और समुदाय का ही ख्याल है,
खुद खुदा भी परेशान है,
आखिर इंसान ने खो दिया ईमान है।
