कुछ उलझे से
कुछ उलझे से
कुछ ऐसा फंसे हैं हम इन रास्तों पर,
ना ही तो चलना आ रहा है,
और ना ही रुक सकते हैं।
हंसना भूलते जा रे हैं,
और आंसू हैं जो पलको पर ही रुक गए हैं।
उलझ गए हैं दुनिया की बातों में,
और समझ नही है इन उलझनो को सुलझाने की।
मुश्किलें हैं की थमती ही नहीं,
और वक़्त है के साथ देता ही नही।
जाने कब बदलेगा हमारा समय भी,
जाने कब रास्ते आसान होंगे,
जाने कब साथ होगा कोई समझने वाला,
जाने कब साथ होगा कोई समझाने वाला।
मन करता है खुदा से ही पूछ ले क्या लिखा है आगे उसने,
पर ये भी बहुत ही खूब बात है,
के हमारे बस का तो ये भी नही !