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Ratna Kaul Bhardwaj

Abstract

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Ratna Kaul Bhardwaj

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कुछ पल रुकते

कुछ पल रुकते

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बंद मुठ्ठी में न कभी रुकते हैं

फिसलते रहते हैं यह लम्हे

कुछ पल रुकते, कुछ बात करते

सुलझ सुलझ कर उलझाते हैं लम्हे


कैसे बीते यह हिसाब लगाते

कड़ी से कड़ी भी जोड़ लेते

सिसकियों का भी हिसाब लगाते

बिन मुक्कमल जज़्बात भी बाँटते


रूखे रिश्तों को ज़रा संवारते

आंखों पर से जाले हटाते

एक कदम वे आगे बढ़ाते

दो हाथ हम आगे करते


हर कहानी के मोड़ बहुत सारे

लम्हे चाहे तो राह दिखला दे

पिघलाये जज़्बात, फितरत बदलवा दे

तनकर-झुककर जीना सिखला दे


कुछ भी करें, लम्हे नहीं रुकते

हर पल हमें वे इशारा है करते

दूसरे छोर की सदा याद दिलाते

चलते रहो निरंतर, हैं यही समझाते......


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