कुछ और सही
कुछ और सही


इक्छा हमारी होने लगी ,एक प्रेम गीत गुनगुनाऊं !
अपनी लेखनी को एक ,रूप देकर उनको सुनाऊँ !!
इन शिथिलता के दौर में ,शब्द कुंठित सारे हो गये !
छंद ,रस ,अलंकार कोष ,के घट सारे रिक्त हो गये !!
मंद -मंद बयार का बहना ,कुछ दिनों से बंद हो गया !
सावन जो कभी बरसते थे ,पछुआ उसे उड़ाके लेगया !!
स्पंदन नहीं एहसास नहीं ,हम डर कर दूर रहते हैं !
कविता की भाषा क्षणभर ,में पूरा कैसे कर सकते हैं ?
प्रेम गीत और प्रेम राग को ,मध्यांतर में ही रखना होगा !
तब तक कोई छंद अनोखा ,राग बनाकर हमें गाना होगा !!