कुछ अपने
कुछ अपने
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वो मानते हैं कि हो सकती उनसे कोई खता नहीं
खुद तक तो खुदा के सिवा कोई और पहुंचता नहीं।
वो जुस्तजू करते हैं हमारे क़दमों के निशाँ की भी
उनके हाथों में छुपे खंजर को तो कोई खोजता नहीं।
वो जिन्होंने तय की हैं बुलंदियां लाशों की सीढ़ी पे
कदमों में लगे खून से कब फिसल जाएँ पता नहीं।
वो हो जाते हैं नाराज़ हमारी ज़रा सी लडखडाहट से
जैसे उनके जहां में मदमस्त तो कोई गिरता नहीं।
वो हैं जैसे भी दूर उनसे सोच में भी नहीं हो सकते
बिना किनारों के तो कोई धारा सागर में बहता नहीं।