कटी पतंग
कटी पतंग
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मै संत तो नहीं,
हूं एक साधारण स्त्री,
दुुबले, पतले मन वाली,
हां, समुद्र मंंथन वाला
अमृत चखा है मैंने,
जिन्दगी जी है मैंने,
पर पता नहीं क्यूं
उस विष को बगल में
दबाएं बेठी रहती हूं,
जुगाली करती रहतीं हूं,
पता नही क्यूं ?
वो सारे संत वचन, सुनहरे वाक्य,
एकदम निरर्थक हो जाते हैं,
और में अचानक आ काश में उड़ ती,
रसातल में पहुंच जाती हूं,
कभी कभी, कभी कभी।