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Mithilesh kumari

Abstract

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Mithilesh kumari

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कटी पतंग की तरह

कटी पतंग की तरह

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कटी पतंग की तरह हवा में 

खरखराता आदमी, अब गिरा तब गिरा 

गिरकर न जाने कहाँ पहुँचा 

उड़कर न जाने कहाँ गया 

जब उड़ी पतंग उसे मुकद्दर अपना नहीं पता।


वक़्त है कि कब खिलते फूल सा आदमी 

मुरझा गिर जाए, गिरे नाली या गुलदान में 

बदबूदार बस्ती में, या पाया जाए टेसुए 

बहाते चौहद्दी में, या थामे जाम मिले शराबखाने में 

खिलते हुए उसे नहीं पता था आगे की उम्र ।


क्या कुछ नहीं देखना पड़ता

पेट भरने के लिए, सर से पांव तक साबुत 

दौड़ता है आदमी रात दिन, अपने को धकियाता 

रिश्तों को पीछे छोड़ता, वक़्त की कमी का रोना रोता

वह घसीटता है आत्म, क़ैद कर ख़ुशी को। 


डाल देता है कोने कतरे, रोज़ आत्म को मारते मारते 

आदमी मर जाता है, मशीन बन खुशियाँ तलाशता है 

बाजार में, मयखाने में, शोर में, दूसरों को नंगा कर

ठहाके लगाता है, नंगई देखना उसका मनोरंजन है 

हत्या उसके मन की बेबसी का .... !!     

  


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