कठपुतली
कठपुतली
कठपुतली...!
हाँ..!
अब वह यही तो बनकर रह गई है
महज इक कठपुतली!
जिसकी डोर
किसी एक के हाथ नहीं
सभी उसके मालिक
सब उसके कर्ता धर्ता
जो चाहा..,
जिधर चाहा ..,
नचा लिया!
अब कहाँ उसकी मर्ज़ी चलती है!
बहुत पसंद था उसको
कठपुतली का तमाशा
जब भी कहीं कठपुतली का खेल होता
ज़रुर जाती थी वह उसे देखने
कैसे सबकी डोर उलझी है
एक हाथ की अंगुली में
पर...!
कितनी बारिकी से वह सबको अलग किये है
कब / कहाँ / और
किसको कितना खिंचना है,
कितना नचाना है सब पता है उसको!
बड़े आश्चर्य से देखती थी उसको
और कभी हँसती
तो कभी उदास हो जाती
मानो..
वह स्वयं कठपुतली बन उसके दर्द सह रही हो!
किसे पता था
कल को इसी दर्द को उसको जीना पड़ेगा
अपनों के लिये हर दर्द सहन करना पड़ेगा
वही दर्द जो अपने ही देंगे...
ओह...!
वह कठपुतली सी....!!
क्या कभी आपने देखा है
तमाशा कठपुतली का...?
संभव है..!
संभव है सबने देखा होगा यह तमाशा
आज भी जारी है यह..!