क्षितिज
क्षितिज
वो जहां पर असमा और धरा मिल जाते हैं
छोर मिलते ही नहीं पर साथ में खो जाते हैं
है यही वो स्थान जिसका अंत ही नहीं
मिल गया या खो गया है सोचते है सब यही
सबको है चाह इसकी पर राह का पता नहीं
बिम्ब या प्रतिबिम्ब है ये भ्रम सभी को है यही
कामना को पूर्ण करने श्रम छलांगे भरता है
मरीचिका के जाल में जैसे मृग कोई भटकता है
है धरा का अंत वही जिस बिंदु से शुरुआत है
यात्रा अनंत इसकी कई युगों की बात है
ओर ना है छोर इसका शुन्य सा आकाश है
जिसका जग को ज्ञान न हो परम इसका व्यास है
सूर्य उगता है कहीं से अस्त होता है कहीं
चाँद अपना रास्ता तनिक भटकता भी नहीं
लाखो तारे नभ में हरदिन टिमटिमाते रहते है
देख कर अपनी धरा को मुसकुराते रहते है
मिलने को आतुर है लेकिन मिल कभी ना पाएंगे
साथ चलना भाग्य इनका साथ चलते जाएंगे
ये प्रथा प्राचीन है जो मिट कभी ना पायेगी
धरती और नभ का मिलन है जो क्षितिज कहलाएगी।